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शनिवार, 7 नवंबर 2020

सोच ; Thinking

सोच ; Thinking 


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सोच 
            
























                                                                    "इंसानी सोच" ! 
प्रत्येक मनुष्य की सोच अलग-अलग होती है। कोई क्षणिक तो कोई दूरदर्शी सोच रखता है। तो कोई संकीर्ण और कोई खुली सोच रखता है।  कोई सकारात्मक तो कोई नकारात्मक सोच का मालिक।  सफल व्यापारी  अपने व्यवसाय को स्थापित करने में शुरू से ही अपने सामान की क्वालिटी उत्तम व् मूल्य कम रखता है और लम्बे समय तक व्यवसाय करता है।  दूसरी ओर, एक व्यापारी थोड़े से समय में ही बहुत कुछ  कमाई करना चाहता है और येन -केन प्रकारेण , ग्राहक को उल्लू बनाता है और कुछ ही  समय में उसकी साख गिर जाती है और धंधा चौपट हो जाता है। क्यों होता है ऐसा ? क्या सभी की सोच एक सी नहीं हो सकती ? काश...... की ऐसा हो पाता, तो कोई पंगा ही नहीं होता। परिवार , संगठन , समाज , सभी अलग-अलग विचार के धारक होते हैं। विभिन्न धर्मों का उदय सोच, विचारों में भिन्नता के कारण हैं। 



प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क की रचना तो समान है तो सभी के  मस्तिष्क एक सा क्यों नहीं सोचते !! तो क्या ये मस्तिष्क ही अलग -अलग विचार पैदा करता है ? या फिर परवरिश अथवा संगत विचारों को प्रभावित करती है ? परिवार , संगत और समाज के ऐसे कार्य / विचार जो मनुष्य को  प्रभावित करें , सोच विकसित करने में सहायक होते हैं। समाज में विकसित विभिन्न विचारधाराएं मनुष्य के अनुभव , सुख , दुःख का परिचायक होती हैं। 


सोच ; Thinking 


संकुचित सोच का दायरा सीमित होता है और प्रायः दुखद परिणाम देता है । जैसे मौत के कुएँ में मोटर-साइकिल एक ही दायरे में घूमती रहती है न , ठीक वैसे ही। जैसे ये सोच लेना कि , "मेरे दुःख का कारण मेरा नसीब है " , ये सोच भी संकुचित दायरे वाली है। अहंकार , अकड़ , लालच , ईगो , संकीर्ण सोच के परिचायक हैं। गाली का जबाब गाली से और पत्थर का जबाब पत्थर से , मैं / हम ही श्रेष्ठ हैं इस तरह के विचार भी संकुचित सोच कहलाते हैं। जिनके परिणाम बहुदा घातक होते हैं। 
इतिहास गवाह है संकुचित , संकीर्ण , छोटे विचार या विचारधारा कभी पनप नहीं सके। क्षणिक उन्माद के पश्चात् वे मंद पड़ गए या उनका नामोनिशाँ मिट गया !! विचारों में जब तक खुलापन नहीं होगा तब तक आलिंगन असंभव होगा !

घर का स्वामी अपनी पत्नी /पति , बच्चों को एक निश्चित दायरे में रखकर उनके व्यक्तित्व के विकास को पनपने नहीं देता है। परिवार के अन्य सदस्यों में आत्मविश्वास विकसित नहीं होने देता। ठीक उसी तरह ऑफिस में काम करते हुए यदि आप "बॉस" हैं तो हर बात आपकी ही चले, ये सोच अन्य साथियों को कुंठाग्रस्त करती है , परिणामस्वरूप काम व् व्यवसाय, व्यक्तिगत जीवन सभी प्रभावित होते हैं। पुरुष का अपने आपको स्त्री से श्रेष्ठ समझना , शादी -ब्याह में लड़के वालों का अपने आपको उच्च मानना भी संकुचित सोच है। परिवार बिगड़ने के अनेक कारणों में से ये एक कारण है जो संकुचित सोच का परिचायक  है!

दूसरी ओर खुली-सोच व्यक्तित्व  व् स्वस्थ समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। जहाँ खुलापन है ,  वहाँ आनंद है। परन्तु खुलेपन का आशय अश्लीलता से नहीं है और न ही फूहड़ता से। ये एक ऐसी सोच है जो घिसी-पिटी पुरानी परिपाटियों / रूढिवादिताओं, हठधर्मिता  से छुटकारा पाना है। दूसरे के विचारों को समझकर उनका सम्मान करना है। हमारे समाज और देश के पिछड़े होने का सबसे बड़ा कारण घिसी-पिटी मान्यताओं को मानना और उनमे जकड़े रहना ही है। 

विज्ञान या नए आविष्कार में हम क्यों पिछड़े हुए हैं ? क्यों हम विदेशी तकनीक पर निर्भर रहते हैं ? क्यूँकि हमारे सोचने का दायरा सीमित है।  हमारी इसी सोच ने हमें सैंकड़ों वर्षों तक गुलाम बनाये रखा।  हर बात पर हम ईश्वर पर निश्चिंत और निर्भर रहे जिसने हमारी नहीं सुनी!! परमेश्वर पर विश्वास अवश्य करना चाहिए परन्तु कर्म भी करना बेहद जरूरी है। खाने के लिए जतन तो करना ही पड़ेगा , हाथों और मुँह को कष्ट भी देना होगा। ईश्वर आकर निवाला मुँह में नहीं डालेगा। 
 पूरे विश्व में नए -नए विचार पनपते हैं। क्या आपने और मैंने सोचा था कि TV / Mobile पर कभी सिनेमा देखेगें? या कभी मोबाइल पर टैक्सी बुक कर सकेंगे? क्या इंटरनेट पर online खरीदारी या study  कर सकेंगे ? परन्तु ये आज हम सब कर रहे हैं। ये सब विकसित सोच का ही परिणाम है। 

दूसरी ओर हमारे किसानो की हालत देख लीजिये। आज़ादी से पहले जैसी थी वैसी ही आज भी है। कारण वो अपने दायरे से बाहर ही नहीं आना चाहते। मुझे अच्छी तरह याद है की एक बार मेरे पिताजी अपने गाँव से एक युवक को शहर लाये थे काम दिलाने के लिए, परन्तु वो ३ दिन बाद ही वापस चला गया ये कह कर कि "हमारो तो यहाँ मन न लग रहो ". अब पिताजी क्या कर सकते थे , "बोले जाओ बेटा हल चलाना ही तुम्हें शोभा देगा ". आज भी वो केवल दाल रोटी ही खा रहे हैं। कभी शादी-ब्याह हो या गंभीर बीमारी हो जाए तो कर्जा ले लेते हैं या फिर कुछ खेत का हिस्सा बेच देते हैं। लेकिन उनसे कभी मेडिकल या जीवन बीमा कराने की सलाह दो तो पचास बहाने बना देते हैं। सोचते है की बिना बात का पैसा क्या देना। हारी -बीमारी तो भगवान् की देन  है। या लड़का - लड़की का भाग्य अच्छा है तो सब बिगड़े काम बन जायेंगे। यानी नसीब में विश्वास। सोचने का एक सीमित दायरा!!

कोई भी विचार जिसे हम मूर्त रूप देना चाहें वो पूरा हो सकता है। बस उसे पूरा करने के पीछे पड़ जाओ। जुनूनी हद से गुजरना पड़ेगा तब उसमे सफलता मिलेगी। चाँद पर पहुँचने के लिए बहुत सारे प्रयोग किये गए तब सफलता मिली। हो सकता है एक दिन चाँद पर बस्ती भी बस जाए , प्रयास जारी है !!! सोच यदि सकारात्मक है तो सफलता संभव है। 

आम आदमी के मन में ये बात घर कर चुकी है की , "इस देश का कुछ नहीं हो सकता ". सब साले भ्रष्ट हैं। किस पर विश्वास करें और किस पर नहीं ! भ्रष्टाचार के खिलाफ इतने क़ानून होने के बावजूद भी ये खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। जो सत्ता में बैठा है वो ताक़तवर है कानून उसी के हाथों में बंधा है। और सच भी है  न्याय-प्रक्रिया  को अमीरों का ही साथ देते देखा गया है। न केवल भारत अपितु समूची दुनियां इस रोग से पीड़ित हैं। यही सोच अन्याय को और अधिक बढ़ावा देती है। तो क्या करें ? चुपचाप बैठ कर तमाशा देखते रहें। कुछ न बोलें।  आज ज़माना सोशल -मिडिया का है। जिसमे कोई भी खबर आग की तरह फ़ैल जाती है। जब तक अन्याय के खिलाफ एकजुटता नहीं होगी, सामूहिक बहिष्कार नहीं होगा , सड़कों पर प्रदर्शन, धरने  नहीं होंगे। तब तक ये नहीं मिटेगा।
आज़ादी चाहिए तो मर मिटने के लिए तैयार रहना होगा। सोच को बदलना होगा।  

आये दिन हम खबर पढ़ते हैं की अमुक किसान/मजदूर  का बेटा /बेटी एक बड़े अफसर बन गए। कैसे ? जरूर उन्हें इस सोच ने मेहनत करने के लिए प्रेरित किया होगा कि "बिना पढ़े -लिखे बड़ा आदमी बनाना संभव नहीं है". जी तोड़ मेहनत भी की होगी , पैसे की समस्या भी आयी होगी , बाधाएं भी रास्ता रोकती रही होंगी। लेकिन दृढ़ संकल्प की सोच ने उन्हें ये सफलता दिलाई। 

इसलिए सोच को बदलो , खुद को बदलो , समाज को बदलो , देश को बदलो और दुनिया बदल दो !!!!!!

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