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गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

आर्थिक पिछड़ापन , Economic backwardness

आर्थिक पिछड़ापन  , Economic backwardness



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आर्थिक पिछड़ापन 
समीर की अब शादी हो चुकी है। उसके दो बच्चे हैं। वो शहर में एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर रहा है। सैलरी सिर्फ इतनी है की दाल-रोटी और दुनियादारी चल रही है। परन्तु अभी तक वो बहुत बड़ी रकम नहीं जोड़ पाया है। बैंक से हाउस -लोन व् पर्सनल लोन भी चल रहा है।

उधर किशन एक किसान है, जो एक फसल पक जाने के बाद, पैदा हुआ अनाज का कुछ हिस्सा बेच देता है और कुछ अपनी घर की जरूरतों के लिए रख लेता है। अनाज बेच कर जो आमंदनी होती है उससे कुछ बीज खरीद लेता है, जो अगली फसल के लिए है और कुछ पैसा इमरजेंसी के लिए घर में रख लेता है। बाढ़ , अकाल , ओलावृष्टि होने पर यदि फसल बर्बाद हो जाती है तो शहर में मज़दूरी के लिए जाना पड़ता है। रहने का ठिकाना नहीं होता। सीमेंट के बड़े पाइप या  फुटपाथ पर रात बिताई जाती है।

जगदीश एक मजदूर है जो  प्रतिदिन मजदूरी करता है और अपने परिवार का पेट पालता है। जिस दिन वो मज़दूरी नहीं कर पाता उस दिन घर में खाने के लाले पड़ जाते हैं। इसलिए उसकी पत्नी भी झाड़ू-पोंछा का काम करती है।

समीर , किशन और जगदीश हमारे में से ही अलग -अलग एक व्यक्ति हैं। जो ज़िन्दगी को जीने की बजाय....... ढोते हैं !! इसका सबसे बड़ा कारण आर्थिक पिछड़ापन है। और आर्थिक पिछड़ेपन का कारण अशिक्षा,  व्यवस्था  और वंशकालीन गरीबी है। आर्थिक पिछड़ापन एक ऐसा मकड़जाल है जिसमे से निकलना आसान नहीं होता। जब तक खुद न करो कोई हाथ मदद के लिए नहीं उठता।


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आर्थिक पिछड़ापन 
हमारी शिक्षा और सोच इस पिछड़ेपन का मूल कारण है। हमारी शिक्षा ने हमें कभी भी अपने पैरों पर खड़ा होना नहीं सिखाया।  बचपन से लेकर कॉलेज तक जो  भी पढ़ाया जाता है उसके बाद नौकरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता। कुछ गिने -चुने लोग जिनके पास पैसा होता है वे कोई व्यापार या फैक्ट्री डाल कर काम शुरू करते है। कभी भी किसी स्कूल में ये नहीं सिखाया जाता की व्यापार कैसे करें या कोई लघु उद्योग कैसे शुरू करें । पूँजी नहीं है तो , ऋण कैसे लें। जोखिम का सामना कैसे करें। आर्डर कैसे लें। व्यापार करने / उद्योग लगाने  की समस्त प्रक्रिया क्या है ? कुछ भी तो नहीं समझाया जाता। "आर्ट्स" विषय पढ़ कर कितने लोग कवी , चित्रकार , लेखक , पत्रकार बने, शायद 5 % , बाकी के पास तो नौकरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं। जब विद्यालय / कॉलेज  ही ये विज्ञापन देने लगे की "नौकरी दिलाने वाला एक मात्र कॉलेज " तब हम उस देश की मनोदशा को समझ सकते हैं।

"कॉमर्स" पढ़ कर कितने लोग अपना व्यापार या कोई उद्योग लगा कर  चला रहे हैं। जब पैसा ही नहीं है तो व्यापार या फैक्ट्री डालने का सवाल ही पैदा नहीं होता। 95 % विद्यार्थी नौकरी की तलाश में ही रहते हैं।

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नौकरी पेशा 
"विज्ञान" विषय से पास हुए ज्यादातर विद्यार्थी भी कोई निर्माण -यूनिट नहीं खोलते , बल्कि नौकरी ही तलाशते हैं। मुझे अच्छी तरह याद है की बैंक में नौकरी करने वाला मैनेजर एक Science -graduate था। अंदाजा लगाया जा सकता है की एक Science graduate का बैंक में क्या काम। पर चल रहा है। सरकार के ऊपर भी प्रेशर होता है बेरोजगारी कम करने का।
हाँ "वोकेशनल शिक्षा " [Vocational Education] के माध्यम से किसी विशेष क्षेत्र में पारंगत होने का हुनर जरूर सिखाया जाता है। और रोजगार देने में ये सहायक भी हुआ है। लेकिन इस शिक्षा से भी ज्यादातर विद्यार्थी नौकरी ही प्राप्त करते हैं, अपना व्यवसाय नहीं चला सकते , कारण पूँजी [Capital ]नहीं है। 


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आर्थिक -पिछड़ेपन का दूसरा सबसे बड़ा कारण है :- आम भारतीय की "भाग्य , नसीब , किस्मत " की सोच !!
बचपन से ही हमें सिखाया जाता की , "वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा न मिला है और न मिलेगा "!!
"कितने भी हाथ -पाँव मार लो , लेकिन किस्मत में नहीं है तो व्यापार अच्छा नहीं चल सकता , अच्छी नौकरी नहीं मिल सकती , लक्ष्मी प्रसन्न नहीं हो सकती " इत्यादि। .. इत्यादि। ....  तो क्या करें ?????????????
वैष्णो -देवी , खाटू -श्याम जी , गोविन्द देव जी, मज़ार में मत्था टेको तो शायद भगवान / खुदा की कृपा हो जाए। लेकिन ऐसा करने पर भी सफलता नहीं मिलती !!!!!!!!!

मुझे अच्छी तरह से याद है की जब में स्कूल में पढता था तो परीक्षाओं के दिनों बहुदा मंदिरों में जाकर भगवान से प्रार्थना करता था की भगवान् मुझे पास करवा देना, चाहे मैंने मेहनत की हो या न की हो। ये सब बचपन के संस्कार का ही परिणाम था। तब सीख मिलती थी की भगवान् की मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता। परन्तु होश आने पर ज्ञात हुआ की , "बिना कर्म किये कुछ भी प्राप्त नहीं होता ".  यदि मुझे अ , ब , स , द का ज्ञान ही नहीं है तो में कुछ भी नहीं पढ़ सकता।


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नसीब या....... 
यही सोच इंसान को समझौता करने के लिए बाध्य कर देती है। अनेकों प्रयास के बाद भी जब सफलता नहीं मिलती तब हम सोचने लगते हैं की हमारी तो किस्मत ही खराब है। लुइ -पाश्चर जो एक बहुत बड़े वैज्ञानिक थे उन्होंने अनेकों परिक्षण करने के बाद "रेबीज"[Rabies] नामक बीमारी से छुटकारा दिलाने का टीका तैयार किया। आज जो भी विकास हम देख रहे हैं वो सब विज्ञान की देन है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र चिकित्सा , शिक्षा , भोजन, उद्योग , परिवहन , बिजली आदि  सब इंसान की मेहनत का परिणाम है। कहाँ गयी किस्मत और कहाँ गयी हाथों की लकीरें ??????????????

हम भारतीयों की भाग्य / नसीब की मानसिकता ने ही हमें लम्बे समय से ग़ुलाम बनाये रखा है। जब भी हम किसी संकट से गुजरते है भाग्य की दुहाई दे दी जाती है। हम कोई भी नया काम करने से पहले शुभ -मुहूर्त देखते हैं। जापान , चीन , अमेरिका , रूस , इंग्लैंड या अन्य पश्चिमी देश भी यदि शुभ -मुहूर्त और भाग्य के सहारे बैठे रहते तो आज इतने समृद्ध नहीं होते।

इतिहास में झांकें तो पता चलता है की ताक़तवर / मौकापरस्त इंसान धीरे -धीरे सम्पति का संग्रह करते गए , उन्होंने कभी भी बाँट कर खाने का प्रयास नहीं किया। उनका मत था जो बुद्धि और मेहनत से काम करेगा वो हो संपत्ति एकत्रित करने का अधिकारी होगा। कुछ लोग हालात की मजबूरी से मजदूरी करने को मजबूर हो गए तो कुछ अज्ञानता के कारण। औद्योगीकरण [Industrialization]ने संपत्ति के अनियमित बंटवारे में अहम् भूमिका निभाई।

"जब महत्वाकांक्षा बढ़ती है तो लालच बढ़ता है और विचार संकीर्ण हो जाते है"। इसी महत्वाकांक्षा ने ब्रिटैन को पूरी दुनियाँ में पैर फैलाने का मौका दिया तब भारत भी उससे अछूता नहीं रहा। यहाँ आकर उन्होंने  गरीबी , अशिक्षा , धार्मिक विचार , राजाओं की आपसी शत्रुता देखी और पाया की यहाँ पैर पसारने का उत्तम समय है। उन्होंने  देश को इस कदर निचोड़ दिया की आज़ादी के बाद भी भारत, India देश में गरीबी दूर नहीं हो पायी। दूसरी ओर , विचारों की क्रांति भी आई और साम्यवाद [Communism ] का उदय हुआ। विचार था की प्रकृति के संसाधनों पर सबका समान अधिकार है इसलिए जिसके पास आवश्यकता से अधिक है उससे छीन लो !! विश्व दो विचारधाराओं साम्यवाद और पूंजीवाद में बँट गया। लेकिन क्या हुआ ? सोवियत संघ  जो साम्यवाद विचारधारा का जनक माना था , कालांतर में टूट कर बिखर गया। हमारा राज्य बंगाल जिस पर साम्यवादी- शासन लगभग 35 वर्ष तक रहा, क्या वहां गरीबी नहीं है ? क्या प्रकृति के सभी संसाधनों का समान बंटवारा हो गया है ? "नहीं "

कारण यह है की किसी से छीन कर दुसरे को देने से गरीबी नहीं जायेगी। जब तक वयक्ति को अपने पैरों पर खड़ा होना नहीं सिखाया जाएगा वो धन अर्जित करना नहीं सीख पायेगा। ये सोच स्वयं व्यक्ति को विकसित करनी होगी। नसीब , मुहूर्त के छलावों से बाहर निकलना होगा। किसानो के क़र्ज़ माफ़ी उनको कुछ राहत तो प्रदान करता है पर उन्हें स्वावलम्बी नहीं बनाता।

राज्य और केंद्र सरकार के बहुत प्रयास हैं गरीबी दूर करने के। लेकिन वे सब औपचारिकता मात्र हैं , भ्रष्टाचार के साधन हैं। कभी इंदिरा गाँधी ने नारा दिया था "गरीबी हटाओ" , आज क्या स्थिति है। सारांश यह है की एक गरीब किसान , जनजाति , मध्यम  परिवार वर्षों  से उसी आर्थिक स्थिति में हैं जैसे उनके दादा -परदादा थे। कारण स्पष्ट हैं जो किसान था वो आज भी खेती -बाड़ी ही कर रहा है। जो नौकरी पेशा वो आज भी नौकरी ही कर रहा है। क्यों की कोई नया काम न तो सीखा और न किसी ने सिखाया।

इसलिए यदि संपत्ति का संयमित -संग्रह करना है तो परंपरागत कार्य के अलावा अन्य उपयोगी रोजगार सीखने होंगे। इक्छा -शक्ति को जाग्रत करना होगा , नसीब को कोसने से बचना होगा। परंपरागत-शिक्षा से व्यावसायिक / वोकेशनल -शिक्षा पर जाना होगा ! ये वो शिक्षा है जो विद्यार्थी को एक विशिष्ट व्यापार , एक शिल्प , एक टेक्नीशियन के रूप में , या इंजीनियरिंग , एकाउंटेंसी , नर्सिंग , चिकित्सा , वास्तुकला या कानून जैसे व्यावसायिक व्यवसाय के लिए तैयार करती है। 

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