बेटी : पराया धन नहीं !! - ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : Blog on Life experience

रविवार, 10 नवंबर 2019

बेटी : पराया धन नहीं !!

बेटी : पराया धन नहीं !!

Daughter : Not alien but own property !

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बेटी : पराया नहीं अपना धन 
"धरती की तरह हर दुःख सह ले , सूरज की तरह तू जलती जा।
सिन्दूर की लाज बचाने को , चुपचाप तू आग पे जलती जा। "
ये गीत फिल्म सुहागरात [1968] का है, जिसे लिखा इंदीवर ने और गाया किशोर कुमार ने।

गीत के शब्दों से ही भावना प्रगट होती हैं की हिन्दू समाज में महिला को त्याग , तपस्या और बलिदान के लिए प्रेरित किया जाता है। बचपन से ही बेटी को कड़े अनुशासन में रखा जाता है। उस पर अनेकों प्रतिबन्ध होते हैं। शादी के समय उसका दान किया जाता है जिसे "कन्यादान " कहते हैं। और कहा जाता है आज से ससुराल ही तुम्हारा घर है। तुम्हारी शादी हो गयी है अतः विवाहित होने के प्रतीक स्वरुप माँग में "सिन्दूर " भरो। अर्थार्थ अब तुम पूरी तरह से दुसरे परिवार के हिसाब से रहने , ढलने को मानसिक रूप से तैयार रहो।

हम अक्सर सुनते , कहते भी हैं की बेटी पराया धन होती है। पर समझ नहीं आता जिस धन को माँ -बाप स्वयं बनाते है। सालों देखभाल करते हैं, वो धन पराया कैसे हुआ ! वो तो अपना ही धन है , ये बात और है की हमारे समाज में परंपरा के चलते विवाह के पश्चात् बेटी को दामाद के घर विदा करते हैं। परंपरा के अनुसार पुत्री का कन्यादान कर देते हैं। परन्तु उसमे भी भावना यह रहती है की दिए गए दान की पूर्ण रूप से देखभाल की जाए , उसे उतना ही प्यार , स्नेह दिया जाए जितना उसके माता -पिता के आँगन में दिया गया है , अन्यथा दान वापस ले लिया जाएगा । बेटी पराया धन नहीं है, अपना है।

यदि उपरोक्त लिखा झूठ है , तो कोई बताये की बेटी की शादी के पश्चात् भी हम उसकी इतनी परवाह क्यों करते हैं ?? क्यों समय -समय पर उसे घर पर बुलाते हैं या उससे मिलने जाते हैं ??  क्यों उसकी हर ख्वाइश  पूरी करने की कोशिश करते हैं ??  जब ससुराल में पति या सास-ससुर उसके साथ अच्छा वर्ताब नहीं करते हैं, तो हम क्यों उन्हें समझाते हैं और हालात बिगड़ जाने पर वापस अपने घर ले आते हैं। यदि कोई इंसान पराया हो तो क्या हम उसकी इतनी चिंता करेंगे। सोचेंगे हमें क्या लेना देना , कौन पचड़े में पड़े। लेकिन अपनी बेटी के लिए हम ऐसा नहीं सोचते क्यों की वो अपना धन है , अपनी शान है। सिर्फ रस्मों -रिवाज  के चलते  पराई है, लेकिन सच में वो अपनी है। यदि ऐसा न होता तो शादी-शुदा महिलाओं की रक्षा के लिए कानून नहीं बने होते !!

दरअसल , समाज में प्रचलित सोच -बेटी को तो एक दिन पराये घर जाना है - जो की विकृत मानसिकता को प्रलक्षित करती है, वोही सोच लड़की के माँ -बाप  को उसे अपने मन से पराया समझने के लिए बाध्य करती है। दूसरी ओर लड़की का ससुराल पक्ष उसे अपने घर के नियमों के अंदर बांधना चाहता है। जिन्हें अपनाना लड़की मजबूरी समझती है। गांवों में तो ऐसी भी भावना है की बेटी की शादी के बाद "हम तो गंगा नहा लिए ". ऐसी सोच वाले माँ-बाप अपने खून का अपमान कर रहे होते हैं। अपने धन का दुरूपयोग होने देते  हैं। जहाँ उस धन का उसकी इक्छा के विरुद्ध उपयोग होता है। जहाँ पति उसे अपनी निजी संपत्ति और पति के माता -पिता नौकरानी समझने लगते हैं। जहाँ उनकी बेटी सांस भी ससुराल वालों की मर्जी से लेती हैं। उसकी अपनी इच्छा  का कोई अस्तित्व नहीं होता है। बस कैदखाने में बंद हो जाओ और जैसा कहा जाए वैसा करती जाओ !!

बेटी : पराया नहीं अपना धन !!

Daughter : Not alien but own property !

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बेटी : पराया नहीं अपना धन 

मुझे तो नहीं लगता हिन्दू धर्म में बेटी को पराया करने या कहने की कोई परिपाटी रही होगी।  हाँ, कालांतर में कुछ स्वार्थपरक शक्तिशाली लोगों ने ही ऐसे नियम बनाये होंगे। ऐसी सामाजिक व्यवस्था में महिला की छटपटाहट स्वाभाविक है। लेकिन जब से समाज पढ़ा -लिखा, जागरूक  बना है ,  उसने बेटी के दर्द को , मनोस्थिति को गहराई से समझा है , उसने महिला के प्रति समाज की सोच को बदलने में बड़ा योगदान दिया है। इसी सोच के साथ आज बेटियों को उच्च शिक्षा दी जा रही है। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में वो पुरुष के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर काम कर रही है। परिणाम स्वरुप उसने अपने अस्तित्व को पहचाना है और किसी भी तरह के  होने वाले अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की है।

आज के समय में शादिओं के टूटने या शादी के बाद सम्बन्ध -विच्छेद होने की घटनाएं बढ़ रही है। कारण स्पष्ट है लड़कियाँ आत्मनिर्भर हैं और स्वाभिमान से जीना चाहती हैं। किसी भी तरह के मानसिक या शारीरिक दुर्व्यव्हार का पुरजोर विरोध करना सीख लिया है।  दूसरी ओर लड़की के माता -पिता भी अपनी पुत्री को एक सीमा तक ही एडजस्ट करने की सलाह देते हैं , सिर से पानी गुजर जाने पर विरोध करना उचित बताते हैं। [पढ़ें :-https://www.zindagikeanubhav.in/2019/08/Shadiyan-aajkal.html]

यदि सर्वे किया जाए तो 80 % लड़कियां यही कहेंगी की वो अपने पति व् ससुराल वालों से संतुष्ट नहीं हैं। उन लड़कियों की हालत तो और भी अधिक चिंताजनक है जो अनपढ़ या कम पढ़ी -लिखी हैं या जिनके माँ -बाप गरीब हैं। समय की मांग यह है की बेटी के बारे में जो रूढ़िवादी सोच है , उसे बदला जाए। सबसे बड़ा डर की, "शादी के बाद बेटी ने यदि ससुराल को त्याग दिया तो "लोग क्या कहेंगे " , "किस -किस को जवाब देते रहेंगे ", " बेटी का आगे क्या होगा " का रहता है। इसका जबाब यह होना चहिये की बेटी ससुराल पक्ष के व्यवहार से संतुष्ट नहीं है और उसे अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीने का पूरा अधिकार है। और यदि मायकेवाले भी उसका साथ नहीं देंगे और बेटी ने तंग आकर कुछ कर लिया या ससुराल वालों ने बेटी को मार दिया तो, क्या लोग उसे फिर से ज़िंदा कर पाएंगे ?? नहीं न , तो फिर उन लोगों की या उस समाज की परवाह क्यों। पुत्री को पूरा हक़ है अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से जीने का विशेषकर जब वो बालिग हो जाए। जो अधिकार पुत्रों के हैं वो ही पुत्रियों के भी हैं, उनमें लेशमात्र भी कमी करना पुत्रिओं के साथ अन्याय करना होगा।

बेटी बचाओ बेटी अपनाओ 

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बेटी पराया धन नहीं 
गाँवों के निवासी तथा कुछ कट्टर धर्म-भक्त तो कन्या के घर का पानी तक नहीं पीते। बेटी से कुछ आर्थिक सहयोग लेना पाप समझते हैं। उसके जन्म लेते ही उसे बोझ समझने लगते हैं। उनके मतानुसार घर के  काम करना और परिवार को संभालना ही महिला का काम है। दाह संस्कार में उनका प्रवेश वर्जित कर देते हैं।  अभी जब सुषमा स्वराज की मृत्यु हुई तो उनकी पुत्री ने उन्हें मुखाग्नि दी, तो क्या धर्म भ्रष्ट हो गया या माँ की आत्मा को शांति नहीं मिली ??  जिनके घर में पुत्र न हो तो वो माँ-बाप क्या करेंगे। पुत्री किसी भी तरह से पुत्रों से कमतर नहीं हैं। 
सच्चाई यह है की  शादी के समय जितनी जरूरत बेटी के माँ-बाप को श्रेष्ठ दामाद की होती है उतनी ही जरूरत दामाद के  माता-पिता को श्रेष्ठ बहु की होती है। लेकिन श्रेठता में कहीं भी कमी है तो दोनों पक्षों को उसमे सुधार की आवश्यकता है।  केवल बेटी या उसके माँ-बाप को ही नहीं। घुटन भरी ज़िंदगी से खुले वातावरण की हवा अधिक  श्रेष्ठ होती है। अतः बेटी को इस काबिल बनायें की वो किसी पर आश्रित न रहे। साथ ही ऐसे संस्कार भी दें की बनती कोशिश परिवार को जोड़कर रखे परन्तु अन्याय का पुरजोर विरोध भी करे।

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