श्राद्ध -पक्ष : तर्पण - ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : Blog on Life experience

गुरुवार, 26 सितंबर 2019

श्राद्ध -पक्ष : तर्पण

श्राद्ध -पक्ष : तर्पण [तृप्ति ]

तर्पण, shradh, tarpan,zindagi ke anubhav
श्राद्ध 
भारतीय संस्कृति में यह तथ्य घोषित किया गया है कि, "मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता" , अनंत जीवन श्रृंखला की एक कड़ी मृत्यु भी है , इसलिए संस्कारों के क्रम में जीव की उस स्तिथि को भी बांधा गया है। जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है , कामना की जाती है कि सम्बंधित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कार बने।  इसलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राद्ध -कर्म भी कहा जाता है। 


तर्पण 

तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है।  स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति किसी खाद्य पदार्थ , वस्त्र , आदि से नहीं होती , क्यों की स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता होती है। मरणोपरांत केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है जिसे भूख-प्यास , सर्दी -गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती। सूक्ष्म शरीर में विचरना , चेतना और भावना की प्रधानता रहती है। 

इस दृश्य संसार में स्थूल शरीर वालों को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग , वासना , तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है , उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्मों से उत्पन्न सुगंध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है। उसकी प्रशंसा तथा आकांक्षा का केंद्र-बिंदु श्रद्धा है। इसी श्रद्धा से उसकी तृप्ति होती है। इसलिए श्राद्ध एवं तर्पण किये जाते हैं। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों , परिवार , वंश -परम्परा , संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु -लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा {घास , तिनका , खतपरवार } पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है की पितृ -पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं , उसे वे सूक्ष्म में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का ही श्राद्ध, पिंडदान करने का विधान है।

तर्पण,  hindu rivaz, zindagi ke anubhav par blog
तर्पण 

श्राद्ध - तर्पण  प्रक्रिया 

तर्पण के लिए मुख्य रूप से जल का ही उपयोग होता है। उसे सुगन्धित बनाने के लिए जौ , तिल , चावल ,दूध ,फूल जैसी मांगलिक वस्तुएं भी मिला ली जाती हैं। कुशाओं [घास , तृण ] के सहारे जौ को छोटी अंजलि से मंत्रोचार पूर्वक डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं। परन्तु ,तर्पण क्रिया के साथ श्रद्धा , कृतज्ञता , सद्भावना ,प्रेम , शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए। तब तर्पण का उदेश्य पूरा हो जायेगा ,पितरों को तृप्ति प्राप्त होगी।  परन्तु यदि ये कार्य केवल लकीर पीटने के लिए किया जाता है तो कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण नहीं होगा। 
स्वर्गवासी पितर द्वारा किये गए उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ,उनके अधूरे छोड़े हुए पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करना करने में तत्पर होना तथा अपने व्यक्तिगत एवं वातावरण को मंगलमय ढांचे में ढालना मरणोत्तर संस्कार का प्रधान प्रयोजन है। मंत्रोचारण के साथ की गयी तर्पण -प्रक्रिया का व्यापक महत्व है क्यों की शब्द आकाश तत्व में विचरण करते हैं और जीव को प्रभावित करते हैं।

दान 

पूर्वजों के छोड़े हुए धन में से कुछ अपनी ओर  से श्रद्धांजलि मिलाकर उनकी  आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना -यही सच्ची श्रद्धा है। पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पर्याप्त नहीं ,ये क्रिया प्रतीक मात्र है। श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूर्वजों की कमाई को उन्ही की सद्गति के लिए , सत्कर्मों के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाये। अपनी कमाई का जो सदुपयोग , मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी , उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारी को कर देनी चाहिए। 
प्राचीन काल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था।  उन्हें जो दिया जाता था , उसमे से न्यूनतम निर्वाह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृतियों में खर्च करते थे। आज वैसे ब्राह्मण नहीं हैं , इसलिए उनका ब्रह्मभोज भी सांप के चले जाने के बाद लकीर पीटने की तरह ही है। 


तर्पण, zindagi ke anubhav par blog, hindu sanskriti
श्राद्ध -तर्पण 
कन्या भोजन , दीन -अपाहिज , अनाथों को जरुरत की चीजें देना -इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं। जो योग्य हैं वे अपनी क्षमता के अनुसार दान कर सकते हैं , जो कम योग्य हैं उन्हें उधार लेकर दान करने से पितर न तो खुश होते हैं और न ही श्राप देते हैं। पितर कभी नहीं कहते हमारा श्राद्ध करो परन्तु हिन्दू -संस्कृति में श्राद्ध -तर्पण के माध्यम से उनको याद करने की व्यवस्था इसलिए की गयी है कि हमें उनका धन्यवाद करना चाहिए क्यों की यदि वे नहीं होते तो हमारा अस्तित्व भी नहीं होता।

निष्कर्ष 

तो ये था "श्राद्ध -तर्पण " करने के कारण व् भावना का वर्णन। परन्तु आज के समय में हम देखते हैं कि अधिकतर बच्चे अपने माँ -बाप का सम्मान नहीं करते, तो अपने पूर्वजों का क्या आदर करेगें!! पंडे -ब्राह्मण की  मनोस्थिति  रूपये ऐंठने की रह गयी है। दिनांक 25 /09 /2019  के "दैनिक भास्कर " समाचार -पत्र में ही मैं पढ़ रहा था कि "श्राद्ध -पक्ष में "गया " [बिहार ] के पंडों को दान में मिल जाएंगे करीब 40 करोड़ रुपए। पण्डे जजमानों के घर जाकर मिलते हैं और उन्हें "पितरों " के लिए पिण्डदान के लिए "गया" आने के लिए प्रेरित करते हैं। पण्डे ही करते हैं जजमानों के रहने और खान -पान का पूरा इंतजाम। पंडो का कहना है की वे दक्षिणा के रूप में 21 -21 सौ रुपए लेते हैं। कुछ जजमान तो 51,000 हजार रुपए तक देते हैं। जो जजमान 100 या 200 रुपए ही देते हैं , उनके तर्पण -क्रिया ये कैसे करवाते होगें, ये पितर ही जानते होगें या भगवान। इन 17 दिनों में ही वे सालभर का खर्च निकाल लेते हैं। परन्तु इस "कोरोना " ने पंडों के सारे कामकाज ठप्प  कर दिए हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है की यदि कोई जजमान इस "कोरोना काल" में श्राद्ध न कर पाए तो क्या होगा ? मेरे विचार से तो कुछ नहीं होगा , बस जरुरतमंदो की मदद कर देने मात्रा से ही श्राद्ध पूर्ण हो जाएगा !!

तर्पण, gaya in bihar, hindu dharam, zindagi
"गया" इन बिहार 
एक दिन मेरे मित्र अजय ने अपने घर आने के लिए कहा , परन्तु मैंने यह कह कर मना कर दिया कि मुझे आज श्राद्ध करना है। अजय बोला कि श्राद्ध करने के बाद आ जाना। मैंने कहा कि श्राद्ध करने के दिन हम कहीं नहीं आते -जाते। वैसे भी व्यस्तता इतनी हो जाती है कि समय नहीं मिलता। पंडितजी लम्बी लिस्ट दे देते हैं , उस सामान को लाने में और उनके भोज की व्यवस्था करने में , उन्हें विदा करने  में ही समय निकल जाता है। क्यों, क्या  तुम नहीं करते हो श्राद्ध? मैंने अजय से पूछा। अजय ने कहा, "मैं तो प्रतिदिन ही उनका श्राद्ध करता हूँ। भोजन करने से पहले उनका धन्यवाद करता हूँ। पशु , पक्षी , गाय के लिए अन्न निकाल देता हूँ। पितरों को याद करने व् उनका धन्यवाद करने के लिए मैं विशेष दिनों की प्रतीक्षा नहीं करता"। 

उसने आगे बताया। "हाँ , उनके  सिखाये गये सिंद्धान्तों के कारण कुछ जरूरतमंद लोगों की समय -समय पर आर्थिक सहायता अवश्य कर देता हूँ"। जैसे पिछले वर्ष उसने एक गरीब बस्ती में बच्चों के लिए खाने की व्यवस्था की थी। और इस वर्ष एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले गरीब बच्चों के लिए कॉपी , रबर , जूते आदि वितरित कर दिए हैं। उसके हिसाब से यही अपने पितरों के लिए सच्ची श्रद्धा है। जीते जी जो संतान अपने माता -पिता का सम्मान नहीं करते। मरणोपरांत उनके लिए तर्पण केवल दिखावा है। 

  भावनाएं यदि पवित्र हों तो प्रत्येक क्षण ,दिन ,काल शुभ है। 
******************************************************************************

ब्लॉग पसंद आया हो तो अपने comments जरूर दें व् शेयर करें।
अन्य ब्लॉग पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें :-
https://www.zindagikeanubhav.in/

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपको यदि कोई संदेह है , तो कृपया मुझे बताएँ।