कोर्ट- केस, एक अनुभव : Court-case an experience - ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : Blog on Life experience

शनिवार, 24 अगस्त 2019

कोर्ट- केस, एक अनुभव : Court-case an experience

कोर्ट- केस, एक अनुभव : Court-case an experience

zindagi ke anubhav par Blog, Court-case an experience
ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : कोर्ट -केस अनुभव 

कोर्ट-केस करने में क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, उसके बाद उन्हें कैसे सुखाते हैं , उसकी पूरी दासताँ !!

बात उन दिनों की है जब मैंने बैंक से VRS नहीं लिया था। बैंक के प्रबंधन का पूरा जोर Advances / Loan को बढ़ावा देने पर था। हमारी ब्रांच के मैनेजर ने भी  Loan portfolio को बढाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कौन कितना Loan बांटता है, Management की नज़र में कौन कितना चढता है, इस बात की होड़ सभी मैनेजरों में लगी हुई थी। हमारी शाखा के मैनेजर ने भी Loan बाँट दिए। Target था एक करोड़, और बाँट दिए डेढ़ करोड़। अर्थार्थ target  से अधिक। फिर क्या था !! हर दिशा से बधाईआं , Regional -Head , जनरल -मैनेजर , चेयरमैन की तरफ से बधाई।
मैनेजर साहब बेहद खुश। स्टाफ पर रोब। स्टाफ अगर छुट्टी मांगे , तो  मजाल है की मिल जाए।  "काम करो , बाद में देखेंगे " , "अभी तो तुमने छुट्टी ली थी " जैसे जबाब आम थे। स्टाफ अगर काम नहीं करे तो शिकायत का डर। अरे........ पूछो मत। जब किसी Hero की पहली ही फिल्म हिट हो जाये तो उसके पैर सातवें -आसमान पर होते हैं। ऐसा ही कुछ हाल हमारे मैनेजर साहब का था। जब कोई व्यक्ति सफल होने लगता है, तो उसके चेहरे की आभा अलग ही होती है। चेहरे पर चमक आ जाती है। चाल -ढाल बदल जाती है। वहीँ दूसरी ओर, विरोधियों के सीने पर सांप लोटने लगते हैं , ईर्ष्या बढ़ जाती है , दुश्मनी पनपने में देर नहीं लगती।

समय बदलने में देर तो लगती है , पर हमारे मैनेजर का समय जल्दी ही बदल गया। जो Loan उन्होंने बाँटे थे, कुछ महीनों बाद उनकी किस्तें [installments ] आना बंद हो गयीं। लगभग 50 % ऋण की किस्तें overdue हो गयीं। मैनेजर साहब की बैचेनी बढ़ने लगी। क्यों की Loan........ NPA [Non-Performing Asset] में बदल जाएंगे। जो उनके और बैंक के उच्च प्रबंधन के लिए खतरा होता। इसलिए , ऋणियों से फोन पर बात शुरू हो गयी , लैटर भेजना  शुरू हो गया। क्रेडिट -अफसर को ऋणियों के पास भेजा जाने लगा। कभी ऋणी मिल जाते, तो कभी नहीं मिलते।  जो मिल जाते, तो वो क़िस्त न भरने का कोई न कोई बहाना बनाने लगते। मैनेजर साहब हर संभव कोशिश कर रहे थे गाडी पटरी पर लाने के लिए ,लेकिन गाडी पटरी से बार -बार उतर रही थी। बीमारी को कितना भी छुपाओ वो छुपती नहीं।

ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : कोर्ट- केस  एक अनुभव [ बैंक कार्यवाही ]


"बैंक के प्रबंधन" को ब्रांच के ऋण की ख़राब स्थिति का पता चल गया। अब विरोधियों की चाँदी बनने का समय था। बैंक प्रबंधन ने जांच बैठा दी। सूचना का अधिकार [Right to Information Act ] कानून के तहत सम्बंधित सरकारी , अर्ध -सरकारी विभागों के मंडल कार्यालयों से ऋणियों के salary -certificates मंगवाए गए। पता चला की बैंक के DSA [Direct Sale Associate] ने सरकारी विभागों के जिन employees को loan बंटवाए थे उनके salary slip व् अन्य दस्तावेज, निवास प्रमाण पत्र फ़र्ज़ी थे। जिसकी वजह से उनको, उनकी पात्रता [eligibility ] से अधिक लोन दे दिया गया।

बैंक-प्रबंधन  के लिए अब अगला कदम कानूनी-कार्यवाही का था। ब्रांच मैनेजर को आदेश दिए गए की थाने में दोषी ऋणियों के ख़िलाफ़ F.I.R. दर्ज करवाई जाए। इस बीच क्रेडिट -अफसर का ट्रांसफर हो गया और शाखा का क्रेडिट-विभाग मुझे सौंप दिया गया। मुझे जैसे सांप सूंघ गया, क्यों कि मैं क्रेडिट के मामले में कच्चा था। खैर ........मरता क्या न करता।
 ब्रांच मैनेजर ने थाने के नाम application तैयार करके मुझे साथ चलने को कहा। हम दोनों गए थाने। थानेदार था नहीं , वो कोर्ट गया हुआ था। एक घंटे बाद वो आया तो उनसे  दोषी ऋणियों के विरुद्ध F.I.R. लिखने के लिए कहा। पर उसने F.I.R. लिखने से मना कर दिया और दस आरोप हमारे ऊपर लगा दिए , जैसे :- पहले तो आप ऋण देते समय ठीक से जांच नहीं करते , पैसे खाकर लोन बांटते हो , एजेंट से दलाली खाते हो , प्रॉपर फॉलोअप नहीं करते , तो भाईसाहब आपके कर्म खुद भुगतो , पुलिस को बीच में क्यों लाते हो। वगेरा .......वगेरा ........और थानेदार ने प्राथमिकी  दर्ज नहीं करी , हमें खाली हाथ वापस आना पड़ा।

बैंक के Regional -office को थानेदार के व्यवहार से अवगत करवाया गया। फिर बैंक ने एक वकील की  सेवाएं लीं और निर्णय लिया गया की कोर्ट के माध्यम से थाने में F.I.R. करवाई जाए। बैंक के वकील ने लगभग 80 cases की अलग -अलग फाइल की 3 -3 सेट फोटोकॉपी करवाए और कोर्ट में आवेदन पेश कर दिया। समझा जा सकता है कितना कितना खर्चा हुआ होगा। अकेले वकील की फीस रुपए 1,50,000 थी। खैर ..कोर्ट ने सम्बंधित क्षेत्र के थाने को F.I.R. लिखने के आदेश जारी कर दिए। जब डंडा पड़ता है तब काम होता है। पुलिस को भी झक मारकर आदेश का पालन करना पड़ा। 
पुलिस कार्यवाही से ऋणियों व् DSA के कान खड़े हो गए। कुछ ऋणियों ने किस्तें भरना शुरू कर दिया। कुछ को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। कुछ ऋणी गायब हो गए। चूँकि फर्जी दस्तावेजों [Fake documents]से ऋण लिया गया था, अतः ऋणियों की पेशी तो अदालत में होनी ही थी। और बैंक की तरफ से मैनेजर व क्रेडिट अफसर को भी अदालत में जाना ही था। अपने केस की पैरवी करने व् गवाह के रूप में।
कोर्ट का नज़ारा वैसा नहीं होता जैसा हम सिनेमा में देखते हैं। जज ,वकील , मुल्ज़िम , गवाह , पुलिस , रीडर सब  वहां अलग ही दिखाई देते हैं। और उनका व्यवहार , प्रस्तुतीकरण , सब असली व् अदालती नियमों के हिसाब से होता है।

ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : कोर्ट-केस एक अनुभव [अदालती कार्यवाही ]

zindagi ke anubhav par Blog,Court-case an experience
ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : कोर्ट -केस अनुभव 

हमारे केसों में भी ऐसा ही हुआ। जब हम अदालत परिसर में पहुंचे, तो उस कमरे का पता लगाना ही टेढ़ी खीर थी, जिसका नंबर सम्मन पर लिखा हुआ था। बड़ी पूछताछ के बाद जज साहब का कमरा मिला। जब हम छोटे से कोर्ट रूम में पहुंचे, तब तक जज साहब नहीं आये थे। उनका इंतज़ार किया गया। जब जज साहब आये, तब तक ऋणियों का वकील नहीं आया था। वो किसी दुसरे केस के सिलसिले में अदालत के अन्य कमरे में था। सरकारी वकील आ चुका था। पुलिस की तरफ से वो चालान पेश कर चुका था। वो हमें केस पढ़वा  रहा था और समझा  रहा था,  "देख लीजिये आवेदन ठीक से लिखा गया है या नहीं "।  पुलिस दोषी-ऋणी को पकड़कर एक कोने में खड़ी थी। जब ऋणि का वकील आया तो उसने जज साहब से इधर -उधर की बातें करी , तत्पश्चात केस की कार्यवाही शुरू हुई। गवाह के रूप में हमारे बयान दर्ज होने लगे , हम से जो -जो पूछा जाता, वो -वो टाइप होता जा रहा था। मसलन ; नाम , पिता का नाम , व्यवसाय , निवास , रहने की अवधि इत्यादि। सब कुछ टाइप हो जाने के बाद, हमसे हस्ताक्षर करवा लिया गये और रवाना कर दिया गया। चार घंटे बर्बाद हो गए , ब्रांच का काम पेंडिंग हुआ वो अलग। लगभव 80 केसों में महीने भर तक केवल यही काम होता रहा।

अगली पेशी के लिए "कोर्ट-सम्मन "लेकर घर पर एक पुलिस वाला आया। बीवी डर गई , पड़ोसियों की जिज्ञासा बढ़ गई। जब मैंने सम्मन को पढ़ा तो पता लगा कि बैंक द्वारा लगाए गए केस के सिलसिले में गवाही के लिए है। बीवी व् पड़ोसी ने राहत की सांस ली।
इस पेशी में, दुसरे ऋणी का वकील केस की फाईल खोलता, और किसी पेज पर लिखी लाइन पढ़ता और उसकी सच्चाई का पुष्टिकरण [confirmation ] हमसे करवाता। टाइपिस्ट सारे वार्तालाप को टाइप करता और अंत में हमसे हस्ताक्षर करवा लिए जाते। आरोपित-ऋणी कोने में चुपचाप खड़ा रहता। सरकारी वकील कोई बहस नहीं करता था। हमें महसूस ही नहीं होता था कि वो बैंक के केस में हमारी मदद कर रहा है, या नहीं। इन केसों के सिलसिले में बहुत से जज व् वकील से  सामना होने लगा। थानेदारों से पहचान बढ़ गई। 

ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog : कोर्ट केस एक अनुभव [अदालती कार्यवाही ]

zindagi ke anubhav par Blog, Court-case proceedings
ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog ; कोर्ट -केस रूम 

दिन महीनों में, और महीने वर्षों में बदलने लगे। अगली बार फिर पेशी हुई। इस बार जज साहब बदल गए।  मामला आपराधिक अदालत से CBI अदालत में क्यों और कैसे चला गया, कुछ पता नहीं। फाइल के ऊपरी कवर पर स्याही से केस नम्बर के साथ -साथ ढेरों तिथियां लिखी हुई थीं, और भी बहुत कुछ लिखा हुआ था, जो हमारी समझ से कोसों दूर था ।  जिस वकील ने बैंक के केस फाइल करवाए थे, उसकी अदालत में मौजूदगी नगण्य थी। शायद , उसका काम केस लगवाना था, पैरवी करना नहीं। खैर ..........
एक बार की पेशी में ऋणी का वकील नहीं आया, उसका अस्सिटैंट आया और वकील साहब के उपस्थित न होने की सूचना जज साहब को दी। जज साहब ने हाजिरी दर्ज करवाई और रवानगी दे दी। हमने कोर्ट में उपस्थित कर्मचारी से पूछा कि अगली पेशी कब है, तो उसने तिथि बताई और कहा, "सम्मन पहुँच जाएगा"। उनसे जब पुछा कि , "क्या कोर्ट गवाह को यात्रा -भत्ता देती है "? तो जवाब था की लोकल गवाह को नहीं देती , जो बाहर  से आता है, उसे दिया जाता है। तो यह बात गवाह को क्यों नहीं बताई जाती ? जवाब था कि आपके वकील को बताना चाहिए था। मैंने पूछा कोर्ट की कोई जिम्मेदारी नहीं है , जवाब "न " में था।

इस बार मैने पत्नि व् पड़ोसियों को पहले ही सूचित कर दिया कि " सम्मन लेकर आने वाले पुलिस कांस्टेबल को देखकर डरें नहीं , समझ जाएँ किसलिए आया है। बस ये सिलसिला महीनों  से चला आ रहा था। सम्मन को रिसीव करना , अदालत जाना , इंतज़ार करना , वकील फाइल में जो पेज खोले उस पर गवाह की टिप्पणी दर्ज करना और thank you बोलकर रवाना हो जाना। एक केस में तीन -तीन पेशी आम बात हो गयी थी। कारण शायद गवाह को तोड़ने का था या कुछ और , पता नहीं।  

समय गुजर रहा था। इस बीच ब्रांच- मैनेजर का ट्रांसफर अन्य स्थान पर हो गया था। नए मैनेजर के आने के बाद लगभग दस केस और फाइल किये गए। अब गवाही के लिए बैंक से तीन लोग जाने लगे।  कोर्ट का फैसला कब आएगा, कुछ पता नहीं, और न ही किसी को इस बात की  परवाह थी। बैंक संतुष्ट थी कि उसने कानूनी कार्यवाही पूरी कर दी है, ताकि RBI की दंडात्मक कार्यवाही न हो। वकील अपनी कमाई कर रहे थे , पुलिसवाले अपनी। किसी को भी " जनता के पैसे " लुट जाने का ग़म लेश मात्र भी नहीं था। सार्वजनिक संपत्ति के नुक्सान की परवाह इसीलिए नहीं होती, क्योकि उसमे निजी नुक्सान नहीं होता। कोर्ट -केस की कार्यवाही देख कर लगता था कि  न्याय के नाम पर अनेक लोगों की दुकान चल रही है। मामला जितना लम्बा चले , उतनी ही लम्बी दुकान चले। 

बैंक के केसों की अब क्या स्थिति है?  किसी को नहीं पता !! बैंक का कितना इंटरेस्ट उन कोर्ट-केसों में है , किसी की रूचि नहीं। बैंक का मैनेजमेंट बदल चुका है। मैनेजर साहब रिटायर हो गए , अपने शहर चले गए। मैने VRS ले लिया और वो शहर भी छोड़ दिया, जहाँ बैंक ने केस लगाए थे।


zindagi ke anubhav par Blog,Court-case an experience
नमस्ते 







अन्य Blogs पढ़ने के लिए क्लिक करें https://www.zindagikeanubhav.in/
                                        या 

गूगल पर सर्च करें : ज़िन्दगी के अनुभव पर Blog 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपको यदि कोई संदेह है , तो कृपया मुझे बताएँ।